जब इरफ़ान को गिरता हुआ समझ, मदद के लिए दौड़े नसीरुद्दीन शाह और पता चला कि एक्टिंग थी; ‘मकबूल’ में कास्टिंग को बोले- मास्टरस्ट्रोक

    इरफ़ान खान के साथ ‘मकबूल’ में काम कर चुके नसीरुद्दीन शाह ने, उनके निधन के बाद उन्हें याद करते हुए फिल्म के शूट का एक किस्सा बताया। नसीर साहब ने कहा कि सिर्फ इरफ़ान को देखते हुए ही उनके साथ ऐसा हुआ जब उन्होंने किसी की एक्टिंग को परफॉर्म करते देखा और इसे रियल समझ लिया...

    <p>'मक़बूल' में इरफ़ान खान&nbsp;</p>

    'मक़बूल' में इरफ़ान खान&nbsp;

    7 जनवरी 1967 को पैदा हुए इरफ़ान खान, आज होते तो अपना 55वां जन्मदिन मना रहे होते। अब नहीं हैं तो क्या, उनके चाहने वाले उन्हें याद कर के उनके पैदा होने का शुक्रिया कर रहे हैं। क्योंकि इरफ़ान न होते, तो न जाने कितने रोल वैसे आइकॉनिक नहीं हो पाते, जितने वो अब हैं। 

    इरफ़ान न होते तो ‘हासिल’ एक कल्ट नहीं होती। इरफ़ान न होते तो ‘सन्डे’ को लोग क्यों याद रखते। इरफ़ान उस दुर्लभ प्रजाति के व्यक्ति थे (उन्हें ‘थे’ लिखना अब भी कितना अटपटा लगता है!), जो गुज़रते नहीं, ठहर जाते हैं। आपके अन्दर, कहीं गहरे में। ऐसे ही गहरे धंसे इरफ़ान को, उनके गुज़रने के बाद इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में नसीरुद्दीन शाह ने याद किया था। 

    खुद भी एक्टिंग के आइकॉन कहे जाने वाले, नसीर साहब ने बताया कि इरफ़ान के साथ विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में काम किया था। ‘मकबूल’ मशहूर इंग्लिश नाटक ‘मैकबेथ’ की फ़िल्मी एडाप्टेशन थी। नसीर साहब ने अपने लेख में बताया था कि इरफ़ान न होते, तो शायद ‘मकबूल’ में वो भी नहीं होते। और उन्होंने साथ में अपने सामने, इरफ़ान की एक्टिंग में मास्टरी देखने का एक ऐसा किस्सा बताया जो ‘हासिल’ एक्टर की कला के बारे में बहुत कुछ कहता है। 

    नसीर साहब ने बताया कि मकबूल का रोल विशाल भारद्वाज ने पहले के के मेनन को ऑफर किया था और एक समय तो इसके लिए कमल हासन का भी नाम आया था। लेकिन नसीरुद्दीन शाह ने भारद्वाज से साफ़ कह दिया था कि अगर उन्होंने कमल को लिया, तो वो फिल्म छोड़ देंगे। लेकिन फिर विशाल ने कास्ट किया इरफ़ान को और नसीर साहब ने बाद में एक जगह इसे ‘मास्टरस्ट्रोक’ भी कहा। और शायद इसलिए भी ऐसा हुआ कि नसीर साहब कुछ अनोखा अनुभव करने वाले थे। 

    दरअसल, ‘मकबूल’ में इरफ़ान और पियूष मिश्रा के बीच एक सीन था, जो शेक्सपियर के ओरिजिनल नाटक के उस मशहूर सीन पर आधारित था जिसमें ‘बंको’ का भूत, मैकबेथ के आगे आ खड़ा होता है। ‘मकबूल’ में, जब काका (पियूष मिश्रा) की डेड बॉडी चिता पर रखी जाती है, तो उसके सम्मान में इरफ़ान घुटनों पर बैठ जाते हैं और काका की बॉडी आंखें खोल देती है। 

    नसीर ने अपने साथ हुए अनोखे अनुभव के बारे में बताते हुए कहा, “जब हम सीन की रिहर्सल कर रहे थे, तो पियूष चिता पर लेते हुए थे। इरफ़ान उनके पास बैठे थे और मैं उनके पीछे खड़ा था। मुझे एहसास नहीं हुआ कि रिहर्सल शुरू हो गयी है। कुछ देर आड़ इरफ़ान पीछे की तरफ लड़खड़ा के गिर पड़े। मैं उन्हें संभालने आगे बढ़ा। मुझे लगा कि उनका बैलेंस बिगड़ गया।” 

    नसीर साहब ने कहा कि जैसे इस्मत चुगताई, सआदत हसन मंटो की आंखों को ‘मोरपंखी आंखें’ कहती थीं, इरफ़ान ने अपनी वैसी ही आंखों को उनकी तरफ घुमाया और बोले, “नसीर भाई, मैं एक्टिंग करने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझे संभाल क्यों रहे हैं?” नसीर साहब आगे बताते हैं, “मुझे नहीं लगता मेरे साथ कभी ऐसा हुआ कि मैंने एक एक्टर को परफॉर्म करते देखा और उसे रियल समझ लिया हो!” 

    ‘मकबूल’ इरफ़ान के करियर में एक लैंडमार्क फिल्म थी और इस फिल्म ने उन्हें लोगों की नज़रों में खड़ा कर दिया। और इरफ़ान ने फिर धीरे-धीरे अपनी एक्टिंग से बॉलीवुड के स्टार-सिस्टम से अलग एक अपनी दुनिया बना ली।

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