'भवई' रिव्यू: प्रतीक गांधी की रावण-सीता लव स्टोरी धर्म की राजनीति पर जोरदार व्यंग्य है
'भवई' रिव्यू: रावण-सीता लव स्टोरी धर्म की राजनीति पर जोरदार व्यंग्य है!
Updated : October 22, 2021 11:57 PM ISTमूवी: भवई
कास्ट : प्रतीक गांधी, अभिमन्यु सिंह, अंकुर विकल, राजेन्द्र शर्मा, राजेश शर्मा, आइन्द्रिता राय
रेटिंग : 3/5.0
डायरेक्टर : हार्दिक गज्जर
रामलीला के राम लक्ष्मण सीता की रथयात्रा निकाली जा रही है। भक्ति में डूबे लोग उनका आशीर्वाद लेने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे हैं। उधर राम-लक्ष्मण-सीता बने कलाकारों को भूख लगी जा रही है। ऐसे में राम कहते हैं- साला कोई पानी तक नहीं पूछ रहा, भगवान बनकर गलती कर दी भाई! ये 'भवई' का एक सीन है। इस फ़िल्म का नाम पहले 'रावण लीला' रखा गया था लेकिन लोगों के ऐतराज के चलते नाम बदल दिया गया। पिछले साल की 'बेस्ट वेब सीरीज' कही गई 'स्कैम 1992' में अपने बेहतरीन परफॉर्मेंस के लिए चर्चा में आए प्रतीक गांधी की पहली फ़िल्म है 'भवई'। उनके कैरेक्टर राजाराम को एक्टिंग का चस्का है। गाँव में राम लीला की नाटक मंडली आने पर राजा राम को एक उम्मीद की किरण नज़र आती है और वो रोल मांगने पहुंच जाता है, लेकिन बात नहीं बनती। फिर एक ट्विस्टेड सिचुएशन के बाद इस राम लीला के प्रोड्यूसर और रावण बनने वाले भवर की तबियत बिगड़ जाती है और तब राजाराम को चांस मिलता है रावण बनने का।
राम लीला के बीच उसे सीता बनने वाली रानी से प्यार हो जाता है। एक पंगा है 80s का वो माहौल जहां लोग भक्तिभाव में ऐसे डूबे हुए थे कि कैरेक्टर और एक्टर में फर्क ही नहीं कर पाते थे। (पुराने 'रामायण' सीरियल में राम बनने वाले अरुण गोविल के लोग रियल लाइफ में पैर छूने लगे थे, ये तो सब जानते हैं) तो ऐसे में रावण और सीता के रोल करने वाले एक्टर्स का प्यार क्या कहर ढाएगा ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। कहानी में एक पंगा, एक लोकल युवा नेता का भी है जिसने इस रामलीला का आयोजन करवाया है। वो लोगों को भक्ति-पॉइंट पर रख के उनके वोट्स वसूल लेना चाहता है।
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डायरेक्टर हार्दिक गज्जर इस पूरे ड्रामा को गुजरात के कलरफुल फोक-थिएटर- भवई, स्टाइल में दिखाना चाहते थे। उनकी ये कोशिश आईडिया के लेवल पर तो मज़ेदार है और अगर उनकी कहानी धार्मिक नफ़रतें फैलाने वालों को ज़ख्मी करेगी तो श्रेयस अनिल लोलेकर के डायलॉग उसपर नमक मलेंगे। लेकिन एक फ़िल्म की तरह देखें तो 'भवई' जिस तरह शूट हुई है वो स्टाइल थोड़ा पुराना लगता है। फ़िल्म की पेस भी एक पंगा है जो सेकंड हाफ में ज़्यादा हल्की पड़ जाती है। लेकिन प्रतीक गांधी की परफॉर्मेंस कहीं भी हल्की नहीं पड़ती। रावण के रोल में वो जितने भयानक और ज़ोरदार लगते हैं, राजाराम बनकर उतने ही दब्बू भी। अभिमन्यु सिंह, अंकुर विकल, राजेन्द्र शर्मा और राजेश शर्मा ने भी अच्छा काम किया है। आइन्द्रिता राय की तरफ से मामला हल्का रहा। वो सीता के रोल में तो हल्की पड़ी हीं, लेकिन उन्होंने रानी का कैरेक्टर भी बहुत कैजुअली प्ले किया। हालांकि उनके कैरेक्टर की राइटिंग भी खराब है और वो जो कुछ इत्तना कुछ क्यों सह रही है, कहाँ से आती है फैमिली का सीन क्या है ये सारी डेप्थ मिसिंग है।
फिर भी प्रतीक गया गांधी के लिए 'भवई' देखी जा सकती है। प्यार में पड़े प्रतीक और आइन्द्रिता स्टेज पर रावण और सीता बने अपनी सिचुएशन पर कैसे बात कर रहे हैं वो मज़ेदार है। अंधभक्ति को लेकर फ़िल्म का फर्स्ट हाफ काफी व्यंग्य करता है और फ़िल्म का म्यूजिक कानों को सुकून सा देता है।