ब्रदर्स - महाभारत की एक नयी गाथा : ब्रदर्स फिल्म की समीक्षा

    ब्रदर्स - महाभारत की एक नयी गाथा : ब्रदर्स फिल्म की समीक्षा

    रेटिंग : 2. 5 निष्कर्ष : भावनात्मक रूप से पकड़ बनाने वाले लेकिन ज़रुरत से ज़्यादा खींच दिए गए पहले हाफ की वजह से बर्बाद हुआ फिल्म के दूसरे हाफ का मज़ा।

    ऐसा हो सकता है कि पहले हाफ के ख़त्म होते होते दर्शक इस फिल्म को बीच में छोड़कर जाने लग जाएँ। लेकिन उन्हें मेरी सलाह यही होगी, रुकिए।  असली फिल्म अब शुरू होने को ही है।

    अगर आप में हैं माद्दा एक अत्यधिक भावुक फिल्म को थिएटर में देख सकने का और ड्रामेटिक दृश्यों के दौरान एकाध आंसू टपका सकने का, तो ब्रदर्स  आपके लिए बिलकुल सही फिल्म है।  और वे लोग जो दीवाने हैं स्टंट्स और एक्शन फिल्मों के जिनमें  ड्रामा के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर  का एक्शन और इफेक्ट्स हैं, उन्हें ये फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए।



    कथानक : खून चाहे सौतेला ही क्यूँ न हो, अपने खून को अपनी ओर खींचता ज़रूर है।

    ब्रदर्स फिल्म की कहानी इसी के आस पास घूमती है।  एक बूढ़े और प्रसिद्द स्ट्रीट फाइटर गैरी फर्नांडीस , जिसका किरदार जैकी श्रॉफ ने निभाया है, को मिली सज़ा  जब ख़त्म होती है और वह जेल से बाहर आता है , तो उसे मालूम चलता है कि अब उसका परिवार साथ नहीं रहा। 

    ब्रदर्स फिल्म कहानी है दो ऐसे भाइयों की जिनके पास अपनी अपनी वजहें हैं एक दूसरे से प्यार और नफरत करने की, बल्कि साथ ही साथ यह आईना दिखाती है समाज का, और उसमें मचने वाली भावनात्मक उथल पुथल का, जब भी सौतेले रिश्तों की बात चलती है।

    फिल्म को एक ईसाई घर परिवार के माहौल और ठेठ मुम्बईया लोकेशनों और भाषा में बेहतरीन तरीके से  फिल्माया गया है। 

    प्रस्तुतियाँ

    ब्रदर्स एक ऐसी फिल्म है जिसमें खुशकिस्मती से आपको ढूंढे से भी कोई कमी नहीं मिलेगी पूरी कास्ट की परफॉर्मेंसेस  में।

    जैकी श्रॉफ मंत्रमुग्ध कर देते हैं उस पहले ही सीन में जब वर्षों पहले किये गए एक क़त्ल की सज़ा काट जेल से निकल थरथराते हुए हाथों से अपने सामान की गिरहें खोलते हैं। 

    सिद्धार्थ मल्होत्रा (मोंटी) और अक्षय कुमार (डेविड) के फैंस जम कर ख़ुशी मना सकते हैं कि दोनों ने ही अपने अपने क्षेत्रों और दिए गए स्क्रीन टाइम में लाजवाब परफॉरमेंस दी है। संयोग से सिद्धार्थ अक्षय की बेहतरीन एक्टिंग की बराबरी करने में सक्षम सिद्ध हुए हैं और पूरी फिल्म में कहीं भी अक्षय कुमार उन पर भारी पड़ते हुए नहीं दिखे। अक्षय की पत्नी की भूमिका में जैकलीन फर्नांडिस का अभिनय काबिल-ए -तारीफ़ है।  फिजिक्स के अध्यापक से लेकर एक 'राइट टू  फाइट ' फाइटर बनने का सफर दिखलाती यह फिल्म अक्षय की सबसे बेहतरीन प्रस्तुतियों में से एक है।

     सिद्धार्थ के बचपन की भूमिका अदा करने वाले बाल कलाकार और अक्षय कुमार की बेटी का रोल निभाने वाली बाल-अदाकारा, दोनों ने ही बेहद खूबसूरत अभिनय किया है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। शेफाली शाह ने भी खुद को मिले सीमित स्क्रीन टाइम में अद्भुत अदाकारी का नमूना पेश किया है। वे वाकई एक बेहद उम्दा अदाकारा हैं , उन्हें स्क्रीन पर और देखा जाना चाहिए!  


    क्यों देखें यह फिल्म ?

    जिन्होंने इसका मूल संस्करण "वारियर्स" देखी है, उनको यह फिल्म उस स्तर के लिए देखनी चाहिए जो लायंस गेट, एंडेमोल और धर्मा प्रोडक्शंस ने इस के भारतीय रूपांतर में बना कर रखा है , जिसके बिना यह फिल्म पूरी तरह बरबाद हो सकती थी। 

    ब्रदर्स फिल्म  में दिखाए गए एक्शन दृश्य और RTF टूर्नामेंट तक दिखाए गए हाड़तोड़ ट्रेनिंग सेशंस बेहद उम्दा हैं। फिल्म के दूसरे हाफ में  दिखाए  गए दृश्य आपको अंतर्राष्ट्रीय स्तर का एहसास देते हैं  और मनोरंजक  होने के साथ- साथ काफी मज़ाकिया भी हैं।  राज जुत्शी की मनोरंजक कमेन्टरी हँसने पर मजबूर कर देती है।  

    इस तरह की फिल्मों में होने वाली मार-धाड़ जिसका इंतज़ार अक्सर लोगों को होता ही है , देखने लायक हैं।  ब्रदर्स फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर बेहतरीन है जोकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। भारत में किसी भी हिंदी फिल्म के लिए ये बहुत ही बड़ी उपलब्धि है।  अभिनेताओं की बेहतरीन एक्टिंग के लिए इसे ज़रूर  देखें। 

    खामियाँ

    एक तरफ जहाँ करण  मल्होत्रा ने पहले हाफ में किरदारों के रंग ढंग की हर बारीकी पर ध्यान देते हुए भावुकता को उकेरने की हरसंभव कोशिश की है , वहीँ वे भूल जाते हैं कि  इन सबमें उलझ कर शायद दर्शक यह समझ ही नहीं पायेगा कि अगले हाफ में क्या होने  वाला है।

    इस फिल्म का  सबसे ज़्यादा निराश करने वाला हिस्सा अगर कोई है मेरे मत में तो वो है इसका बेहद चर्चित आइटम सॉन्ग "मेरा नाम मैरी "। इस गाने की फिल्म में कोई ज़रुरत नहीं थी और करीना कपूर खान के शेप से बाहर जाते शरीर और कमर में पड़ने वाले अनगिनत बलों  ने जादू  करने के बजाय लोगों के माथे पर बल डालने का काम किया है और इस गाने को मनोरंजक बनाने के बजाये भौंडा बना कर रख दिया है।

    मिसेज पटौदी को अपने करियर निर्णय सोच समझ कर लेने चाहिए अब, ऐसा लग रहा है।  अगर यह फिल्म आधे घंटे भी छोटी  होती, तो शायद और भी ज़्यादा बेहतर बन सकती थी। 

    इस फिल्म के  सिनेमा घरों में ना चलने की अगर कोई वजह होगी तो वो होगी पहले हाफ में ज़बरदस्ती भरा गया खिंचाव जिसे सहन करना मुश्किल हो जाता है , भले ही आप फिल्मों में धीमी गति से नाटकीयता प्रस्तुत करने के तकनीक से कितने ही वाक़िफ़ क्यों न हों।  इस इकलौती बात से सारा उत्साह मर सा जाता है।  फिल्म में एक डायलाग है : " एक बार किया तो तुक्का , दो बार किया तो हुकुम का इक्का !" , फिल्म के  निर्माताओं को यह सोचना चाहिए था कि फिल्मों को भी मौके दुबारा नहीं मिलते , जब तक कि आपने 'शोले ' जैसी फिल्म ना बनायी हो।  जो लोग बेहद ड्रामेटिक फ़िल्में बर्दाश्त नहीं कर सकते , ब्रदर्स उनके लिए नहीं बनी।