"दिलवाले" देखने से बेहतर है "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" दुबारा देख लीजिये !

    "दिलवाले" देखने से बेहतर है "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" दुबारा देख लीजिये !

    अगर आपको अपने पैसे और दिमागी हालत से प्यार है , तो कृपया "दिलवाले" फिल्म से दूर रहें। 

    यूँ तो सबको पता है कि रोहित शेट्टी की फिल्मों में कहानी की आशा करना बेमानी है , लेकिन यह नहीं सोचा था कि वो दर्शकों को इतना फॉर ग्रांटेड लेंगे कि बॉलीवुड की  सबसे रोमांटिक जोड़ी को असहनीय बना देंगे। 

    इस फिल्म के ख़त्म होने तक मैंने 147 बार अपना माथा पीटा । इसमें से एक बार इसलिए कि मैंने इसपे पैसे खर्चे और 146 बार इसलिए कि  मैंने पूरी फिल्म हॉल में बैठ के देखी।




    कहानी :

    शाहरुख़ (काली/राज) अपने भाई वीर (वरुण धवन ) से बेहद प्यार करता है और उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है।  शाहरुख़ काजोल से प्यार करता है जो उसके पिता के राइवल गैंग की बेटी है और पहली बार उसे प्यार में फंसा कर उसे धोखा देती है। शाहरुख़ चूँकि प्यारा इंसान है इसलिए वो उसे माफ़ कर देता है और काजोल को अपने प्यार का एहसास होता है और वो दोनों साथ आ जाते हैं।  लेकिन काजोल के पिता धोखा देते हैं जिसकी वजह से दोनों गैंग लीडर (विनोद खन्ना, शाहरुख के पापा  और कबीर बेदी, काजोल के पापा ) एक दूसरे को मार डालते हैं। काजोल को ग़लतफहमी हो जाती है कि इसमें शाहरुख का हाथ है। दोनों फिर अलग हो जाते हैं लेकिन वरुण की ज़िन्दगी में कृति सनोन  (इशिता / इशू) आती है जोकि काजोल की छोटी बहन होती है। अब चूंकि इन दोनों को प्यार हो जाता है तो शाहरुख काजोल को मनाना भी ज़रूरी होता है। शाह रुख अपनी पुरानी गैंगस्टर की ज़िन्दगी छोड़कर कार मॉडिफायर की नयी ज़िन्दगी जी रहा होता है और काजोल रेस्टोरेंट का बिज़नेस चला रही होती है। इन दोनों को मिलाने की कोशिश की जाती है, फिर पूरी फिल्म इसी के चारों तरफ घूमती है जिसमें ओवर एक्टिंग, जबरदस्ती के डायलाग डालने की कोशिश और उड़ती गाड़ियों के अलावा कुछ नहीं है। 

    "दिलवाले" देखने से बेहतर है "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" दुबारा देख लीजिये !

    किरदार :

    सभी ने ओवर एक्टिंग की है, कृति को छोड़कर। फिल्म का कौन सा कोना किधर जाता है और कहाँ खत्म होता है, समझ नहीं आता। एडिटिंग अच्छी हो सकती थी । लोकेशंस अच्छी हैं लेकिन ढंग से इस्तेमाल नहीं हुईं।  संजय मिश्रा और बोमन ईरानी जैसे कलाकारों को फ़ालतू के किरदार दिए गए हैं।  जॉनी लीवर की कॉमेडी पुरानी पड़ती सी लगती है। डायरेक्टर इनसे बेहतर करा सकते थे।  

    संगीत :

    दायरे और जनम जनम अच्छे गाने  हैं।  बाकी के गानों पर  थिरका - झूमा जा सकता है।  

    ऑल इन ऑल :

    ये फिल्म देख कर मनमा डिप्रेशन जागे रे !