टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए भी लिया गया था, डूबी शिप की कहानी का सहारा!

    टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए बी शिप की कहानी

    टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए भी लिया गया था, डूबी शिप की कहानी का सहारा!

    जैक ने जब शिप के रेलिंग पर रोज़ को अपनी बाहों में लिया, तो सिनेमा हॉल में बैठी जनता को इश्क की ठंडक महसूस हो गई थी। शिप पर जैक और रोज़ के बालों से गुज़रती वो हवाएं आज भी हर बार फील होती हैं, जब आप ‘टाइटैनिक’ देखते हैं। इस फिल्म में याद करने लायक सीन तो और भी कई हैं, लेकिन वो हमने आपकी कल्पना पर छोड़ दिया है! भावनाओं में मुद्दे से न भटकते हुए, आज टाइटैनिक को डूबे ठीक 108 साल पूरे हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि हम 108 को कोई बहुत चमत्कारी नंबर मानते हैं, मगर फिर भी ‘टाइटैनिक’ से जुड़ा एक किस्सा याद आ गया है, तो सोचा कहते चलें...

    टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए भी लिया गया था, डूबी शिप की कहानी का सहारा!

    14 अप्रैल को देर रात, उस वक़्त का सबसे बड़ा समुद्री जहाज, आर एम एस टाइटैनिक बर्फीली चट्टान से टकराया और डूबने लगा। 15 अप्रैल की सुबह जब सूरज उग रहा था, तब टाइटैनिक समंदर के तल में धंस रहा था। उस सुबह बचकर निकलने वाले ऐतिहासिक तौर पर सबसे खुशकिस्मत लोग कहे जा सकते हैं। इंसानी इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में से एक इस घटना पर एक दर्जन से ज्यादा फ़िल्में बन जाएंगी, और वो भी सिनेमा की सबसे आइकॉनिक लव स्टोरीज़ में से एक, किसने सोचा होगा! टाइटैनिक पर फिल्म बनाने की तलब ऐसी थी कि इससे हिटलर का मिनिस्टर ऑफ़ प्रोपेगेंडा जोसफ गोएबल्स भी नहीं बच पाया। थोड़ा और क्लियर होकर कहें तो हिटलर का नाज़ी प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए भी टाइटैनिक का सहारा लिया गया था! बात है 1940 की, जब दूसरा वर्ल्ड वॉर चल रहा था और हिटलर ने अपना पूरा फोकस ब्रिटेन पर टिका रखा था। ऐसे में ब्रिटिश समाज को नीचा दिखाने और जर्मन बहादुरी का झंडा गाढ़ने के लिए जोसफ गोएबल्स ने एक फिल्म प्रोजेक्ट सेंक्शन किया जिसका नाम था ‘टाइटैनिक’।

    टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए भी लिया गया था, डूबी शिप की कहानी का सहारा!

    डायरेक्टर की कुर्सी दी गई हर्बर्ट सेल्पिन को जो एंटी-ब्रिटिश फ़िल्में बनाने के लिए गोएबल्स के फेवरेट थे। फिल्म की कहानी में विलेन बनाया गया जे ब्रूस इस्मे को (जो वैसे भी अधिकतर टाइटैनिक स्टोरीज़ में विलेन कहे गए) जो बिज़नेसमैन थे और रियल लाइफ में टाइटैनिक को चलाने वाली कम्पनी- वाइट स्टार लाइन के ऑफिशियल थे। कहानी ये बनाई गई कि इस्मे ने शिप के कैप्टन को स्पीड बढ़ाने के लिए घूस दी, ताकि ट्रांस-अटलांटिक पैसेज को सबसे तेज़ पार करने का रिकॉर्ड बन जाए। एकमात्र आदमी जिसने इस्मे को आइसबर्ग की चेतावनी दी वो होगा जर्मन ऑफिसर- पीटरसन। फिल्म के एंड में पीटरसन टाइटैनिक हादसे का शिकार लोगों को न्याय दिलाने के लिए एक इन्क्वारी बोर्ड के सामने पेश करता है। लेकिन उस बोर्ड में भी सब ब्रिटिश हैं, इसलिए इस्मे बच जाता है। फिल्म ख़त्म होती है एक टाइटल कार्ड के साथ जिसपर लिखा है- ‘1500 यात्रियों की मौतों का कोई दोषी नहीं है... मुनाफे के लिए इंग्लैंड की भूख इसके लिए सदा ज़िम्मेदार रहेगी।’ बिना फैक्ट्स, कवि की शुद्ध कल्पना देखिए मतलब!

    टाइटैनिक के 108 साल: हिटलर का झंडा उंचा करने के लिए भी लिया गया था, डूबी शिप की कहानी का सहारा!

    आज के हिसाब से इस फिल्म का बजट 200 मिलियन डॉलर से ज्यादा बैठता है। यानी जितना आज नई वाली टाइटैनिक, एक्स मेन और सुपरमैन रिटर्न्स जैसी फ़िल्में बनी हैं। फिल्म के शूट के लिए नाज़ी सरकार ने डायरेक्टर सेल्फिन को एक असल का शिप भी दिया था। इतना ही नहीं, वर्ल्ड वॉर के बीच में सेल्पिन को जर्मन सेना के सैनिक भी दिए गए, जिनसे फिल्म में एक्स्ट्राज़ के तौर काम लिया जा सके। लेकिन ‘होई वही जो राम रचि राखा’! (ये रामायण के रिपीट टेलेकास्ट से याद आ गया)

    डायरेक्टर साहब खुद अपने इस प्रोपेगेंडा मास्टरपीस को देखने के लिए जिंदा नहीं बचे। किस्सों में ऐसा है कि सेल्फिन साहब गुस्से और फ्रस्ट्रेशन में एक दिन नाज़ी सैनिकों का अपमान कर गए और भला बुरा कह गए। उसके बाद इन्क्वारी शुरू हुई और उन्हें जेल भी जाना पड़ा जहाँ एक दिन वो चामात्कारिक रूप से अपने सेल में लटके हुए पाए गए। आपको याद दिला दें कि हिटलर के दौर में ऐसी ‘चामात्कारिक मौतें’ खूब होती थीं। खैर, फिल्म बनी थी तो रिलीज़ भी हुई। मगर फिर बैन हो गई। किस्से बताते हैं कि गोएबल्स ही नहीं, गेस्टापो (नहीं पता तो बाद में गूगल कर लेना, ये फिल्म की क्लास है हिस्ट्री की नहीं) को भी लगा कि ये फिल्म डूबते हिटलर साम्राज्य की सिम्बल टाइप लग रही है। आखिरकार 1944 में ‘टाइटैनिक’ फिर प्रीमियर हुई, बर्लिन नहीं प्राग में, और काफी अच्छी चली।

    अच्छा चलते-चलते एक बात और... सेल्पिन की मौत के बाद ‘टाइटैनिक’ का डायरेक्शन संभालने वाले दूसरे डायरेक्टर की मौत भी 2 साल बाद, ऐसे ही दर्दनाक तरीके से हुई थी!