'काली खुही' रिव्यू: बेहद ज़रूरी मुद्दे पर बनी ये नेटफ्लिक्स फिल्म, बहुत सुस्त है!

    'काली खुही' रिव्यू: बहुत सुस्त है ये नेटफ्लिक्स फिल्म

    'काली खुही' रिव्यू: बेहद ज़रूरी मुद्दे पर बनी ये नेटफ्लिक्स फिल्म, बहुत सुस्त है!

    नेटफ्लिक्स भी अब धीरे धीरे दिल्ली के कनॉट प्लेस जैसा होता जा रहा है। मतलब बड़े ब्रांड्स के धांसू शोरूम तो हैं ही, लेकिन साथ ही ऐसा माल भी है जिसमें adidas का adidos निकल जाने के भी भरपूर चांसेज हैं। ‘काली खुही’ नेटफ्लिक्स के मार्किट का adidos है।

    ये फिल्म जब शुरू होती है तब इतने सही विजुअल्स और साउंडस्केप लगता है, ग्रेइश कलर टोन, बारिश में मेंढकों की आवाजें इतना रिच एक्सपीरियंस कि आपको लगता है कि यार यहां सच में कुछ बहुत कमाल का देखने को मिलेगा। लेकिन इसी इंतज़ार में 40 मिनट निकल जाते हैं और आपको समझ ही नहीं आता कि चल क्या रहा है।

    कहानी ये है कि दर्शन यानी सत्यदीप मिश्र की मां की तबियत ख़राब है और वो उन्हें देखने अपनी बीवी प्रिया यानी संजीदा और बेटी शिवांगी (रीवा) के साथ अपने गांव लौटता है। और यहां आ के अजीबोगरीब चीज़ें होने लगती हैं। और जैसा कि होता है हमारे यहां, जब चीज़ें समझ न आएं तो भूत वूत ही होगा!

    ऐसी ग़दर लोरी वाली फिल्म तो लास्ट कौन सी थी मुझे याद भी नहीं आ रहा। डेढ़ घंटे की छोटी सी फिल्म है, आपको लगेगा चल ये तो देख ही लेंगे, मगर यकीन मानिए बहुत मुश्किल है आंखें खोले रखना। इस पूरे मामले के पीछे एक बहुत ही गंभीर और घिनौनी हरकत है, पैदा होते ही बच्चियों को मार देना। लेकिन इस सीरियस टॉपिक को स्क्रीन पर एक हॉरर स्टोरी में जिस तरह घुसाया गया है, वो फिल्म के मैसेज को ही हल्का कर देता है। एक तो पूरी कहानी पंजाब के एक गांव में चल रही है, लेकिन मजाल हो कि किसी ने पंजाबी में एक लफ्ज़ बोला हो। गांव के उस काले कुँए से इतना खतरनाक माहौल नहीं बना, जितना डायरेक्टर तेरी समुन्द्र के पॉइंट ऑफ़ व्यू ने बनाया है। इतनी जानदार सिनेमेटोग्राफी और विजुअल्स वाली फिल्म के साथ उन्होंने जो किया है उसकी मिसाल दी जानी चाहिए।

    कुल मिलाकर अगर मैं लम्बा ट्रेवल कर रहा हूं और नेटवर्क नहीं आ रहे। मेरे फ़ोन में सिर्फ़ एक ही फिल्म डाउनलोड पड़ी है ‘काली खुही’ मैं तब भी ये फिल्म नहीं देखूंगा। बाकी आप देख लो हॉरर के नाम पर क्या-क्या झेल सकते हो!