बेहद सस्पेंस भरी है जॉन अब्राहम की फिल्म 'परमाणु' की असली कहानी !
जॉन अब्राहम की फिल्म 'परमाणु: द स्टोरी ऑफ़ पोखरण' इस हफ्ते 25 मई को रिलीज़ हो रही है। फिल्म 'परमाणु' का ट्रेलर हाल ही में आया है और लोगों ने इसपर मिक्स रिएक्शन दिए हैं। फिल्म में जॉन अब्राहम पोखरण टेस्ट के सुपरवायजर का रोल निभा रहे हैं और उनके अलावा फिल्म में डायना पेंटी, बोमन ईरानी आदि हैं। ये कहानी साल 1998 में हुए नयूक्लियर मिसाइल टेस्ट पर आधारित है, जिसके ज़रिये भारत एक नयूक्लियर यानी परमाणु शक्ति बनकर उभरा था। एक्शन और रिस्क से भरपूर ये फिल्म जहां काफी दिलचस्प है वहीं इसकी असली कहानी भी काफी मजेदार है। आइये आपको बताते हैं 'परमाणु' की असली कहानी -
ये बात है 1998 की जब दुनिया के अलग-अलग देश परमाणु शक्ति बन चुके थे और भारत पीछे छूट गया था। तब भारत सरकार ने भारतीय आर्मी के साथ मिलकर पोखरण गांव में एक परमाणु (नयूक्लियर) टेस्ट किया, जिसका नाम था - शक्ति। इस परीक्षण में 5 नयूक्लियर बमों को टेस्ट किया गया था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया था। अचानक किए गए इन परमाणु परीक्षणों से अमेरिका, पाकिस्तान समेत कई देश दंग रह गए थे। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की अगुआई में इस मिशन को कुछ इस तरह से अंजाम दिया गया कि अमेरिका समेत पूरी दुनिया को इसकी भनक तक नहीं लगी। इससे पहले सा 1974 में एक नयूक्लेअर टेस्ट किया गया था, जिसका नाम स्मिलिंग बुद्धा था।
गोपनीय तरीके से हुआ था ये टेस्ट -
उस समय भारत पर अमेरिका ने 4 सैटलाइट लगाये थे और अमेरिका की खुफिया एजेंसी CIA भारत पर नजर रखे हुए थी। भारत का मकसद था इस बात को छुपाकर रखना क्योंकि अगर ये बात बाहर जाती तो भारत पर रोक लगाई जाती। पाकिस्तान की हथियार टेस्ट करने वाली लैब्स के बजाए इस टेस्ट को छुपाने के लिए भारत के पास बहुत कम रास्ते थे। क्योंकि राजस्थान में झाड़ियां और मिटटी के अलावा अमेरिकी सैटलाइट से इस टेस्ट को बचाने का कोई रास्ता नहीं था। भारत के 58वें इंजिनियर कमांडर कर्नल गोपाल कौशिक ने इस टेस्ट का ज़िम्मा उठाया था और अपनी टीम को गोपनीय रहने का आर्डर दिया था। एक छोटी साइंटिस्ट की टीम, आर्मी अफसरों और सरकारी लोगों ने इस बात को छुपाया और इसके इर्द-गिर्द प्लान बनाया गया।
इस टेस्ट को छुपाये रखने के लिए इससे जुड़े सभी काम रात के अँधेरे में किये गये और काम की सभी चीज़ों को दीं में वापस उसी जगह रखा गया, जैसे उन्हें कभी इस्तेमाल ही ना किया गया हो। बम के हिस्सों को घासफूंस के नीचे और मिटटी के नीचे छुपाया गया। इसके अलावा टेस्ट से जुड़ी तारों को भी मिटटी में या फिर ज़मीन पर वनस्पति के नीचे छुपाया गया था। इस ऑपरेशन के लिए विज्ञानिकों को सीधे पोखरण नहीं भेजा गया था। उन्हें अलग-अलग जगहों में ले जाया गया था और फिर नाम बदलकर आर्मी अफसरों के साथ पोखरण तक लाया गया था। सारे तकनीकी स्टाफ ने इस समय आर्मी की यूनिफार्म में काम किया ताकि किसी को भी पता ना चले कि उनकी सच्चाई क्या है।
वाकई में कुछ अलग करना काफी मुश्किल काम होता है। जॉन की फिल्म 'परमाणु' भी इतनी ही दिलचस्प होगी या नहीं ये द्केहने वाली बात है।