'रश्मि रॉकेट' रिव्यू: तापसी पन्नू का जानदार काम एक ज़रूरी मुद्दे को उठाता तो है, मगर हल्का ट्रीटमेंट है दिक्कत!

    'रश्मि रॉकेट' रिव्यू: तापसी पन्नू का जानदार काम एक ज़रूरी मुद्दे को उठाता है

    'रश्मि रॉकेट' रिव्यू: तापसी पन्नू का जानदार काम एक ज़रूरी मुद्दे को उठाता तो है, मगर हल्का ट्रीटमेंट है दिक्कत!

    फिल्म: रश्मि रॉकेट

    कलाकार: तापसी पन्नू , प्रियांशु पैन्यूली , अभिषेक बनर्जी , सुप्रिया पिलगांवकर , सुप्रिया पाठक और श्वेता त्रिपाठी

    लेखक: नंदा पेरियासामी , अनिरुद्ध गुहा और कनिका ढिल्लों

    डायरेक्टर: आकर्ष खुराना

    प्रोड्यूसर: रॉनी स्क्रूवाला , नेहा आनंद और प्रांजल खंडड़िया

    चैनल: जी5

    रेटिंग: 2.5

    तापसी पन्नू जिस तरह की कहानियां अपने लिए चुनती हैं, वो देखकर आधा मूड तो वैसे ही बन जाता है। और फिर सॉलिड परफॉर्मेंसेज की उनकी लंबी लिस्ट इस बात की गारंटी होती है कि फ़िल्म निराश तो नहीं ही करेगी। लेकिन फ़िल्म कोई स्प्रिंट नहीं होती, कि एक इंडिविजुअल अपना बेस्ट देकर मैडल उठा लेगा… ये एक रिले रेस है। और 'रश्मि रॉकेट' इसे जीतने में थोड़ी शॉर्ट है।

    कच्छ के रण से निकली रश्मि की कहानी शुरू तो बिल्कुल रॉकेट की स्पीड से होती है और पहले ही सीक्वेंस में वीमेन हॉस्टल में घुस के 2 मेल पुलिस ऑफिसर्स 'लौंडे' रश्मि को पीटते हुए अरेस्ट कर ले जाते हैं और थाने के मेल लॉक अप में पटक देते हैं। इसके बाद अगले 40 मिनट में रश्मि के बचपन की ट्रेजेडी से लेकर नेशनल लेवल एथलीट बनने की कहानी निपट जाती है। बचपन की ट्रेजेडी में 2001 के भूकंप वाला एंगल है जिसमें रश्मि ने अपने पिता को खो दिया था। मगर जिस तरह स्क्रीन पर वो घटता है, वो ऑलमोस्ट आपको हंसा सकता है।

    इसके बाद रश्मि दौड़ना छोड़ देती है लेकिन फिर एक आर्मी ट्रेनर गगन ठाकुर ( प्रियांशु पैन्यूली) को तुक्के में उसका नेचुरल टैलेंट नज़र आता है। इस सीन से ज्ञान मिलता है कि दरअसल, कच्छ के रण में हमारी फोर्सेज लोगों के अंदर छिपा एथलीट सामने लाने के लिए लैंडमाइंस बिछाकर रखती हैं। गगन फिर रश्मि को दौड़ने के लिए राजी करता है और मूंगफली खाने जितनी आसानी से मैडल जीतती हुई रश्मि नेशनल कैम्प में पहुंच जाती है, जहां उसका सामना होता है नेपोटिज़्म से।

    मतलब एथलेटिक्स असोसिएशन के एक कमेटी मेम्बर की बेटी अभी तक टॉप रनर थी मगर रश्मि के आते ही वो नंबर 2 हो गई। बेसिकली, टिपिकल बॉलीवुड ड्रामा जो हम पहले भी 278 फिल्मों में देख चुके हैं। इस बीच रश्मि के साथ जेंडर टेस्टिंग वाला सीन हो जाता है और उसकी रेपुटेशन हलवा हो जाती है। कहीं से एक एडवोकेट ईशित (अभिषेक बनर्जी) प्रकट होता है और रश्मि का केस संभाल लेता है। केस रश्मि के साथ जेंडर टेस्टिंग के कारण हुए ह्यूमन राइट्स वायलेशन का है, मगर नज़र ये आता है कि ईशित साहब रश्मि को भरपूर महिला साबित करना चाहते हैं।

    और फिर कोर्टरूम में ही साजिशों का पर्दाफाश, असली मुजरिम को रंगे हाथ पकड़ने की मेहनत और कोर्ट प्रोसीडिंग्स के नाम पर जंतर मंतर वाले भाषण।

    डायरेक्टर आकर्ष खुराना में एक स्पेशल टैलेंट है… वो इस बात को पहचानते तो हैं कि कहां पर सीरियस मुद्दा हलवा हो रहा है, लेकिन वो चुनते हलवा हैं और सीरियसनेस मुंह लटका के साइड में बैठी रह जाती है। जैसे कोर्टरूम में जज ईशित को बोलती हैं कि आप हिंदी फिल्में बहुत देखते हैं क्या? क्योंकि असल में कोर्ट में इत्तना ड्रामा नहीं होता। मगर फ़िल्म का पूरा सेकंड हाफ इसी तरह का कोर्टरूम ड्रामा है।

    हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि फ़िल्म बेकार है। जेंडर टेस्ट के नाम पर फीमेल एथलीट्स के साथ जिस तरह का बर्ताव होता है, वो आप दुती चंद और सन्थि सौन्दराजन के केसेज़ से समझ सकते हैं। 'रश्मि रॉकेट' इस मुद्दे को ज़ोरदार तरीके से उठाती है। दिक्कत बस ये है कि मुद्दे का हल और पंगे की वजह को बहुत हल्के तरीके से ट्रीट किया गया है।

    तापसी पन्नू ने रश्मि के रोल को यकीनन अपना 110% दिया है। उन्हें देख के ही लगता है कि वो स्प्रिंट कर सकती हैं।  कैरेक्टर में उनका कनविक्शन ही कहानी को उठाता है। लेकिन अब तापसी को मज़बूत लड़की के टेम्पलेट में देखने की ऐसी आदत हो चुकी है कि कुछ बहुत अलग नहीं लगता। तापसी की फ़िल्म अनाउंस ही इस लाइन के साथ होती है कि ये एक स्ट्रांग फीमेल करैक्टर है। स्ट्रेंथ तक पहुंचने की जर्नी मिस होने लगती है। 'थप्पड़' में ये एक चीज़ थी, इसलिए वो एक जेनुइन इम्प्रेसिव फ़िल्म थी। यहां वो कैरेक्टर डेवलपमेंट है ही नहीं, एक मुद्दा है, उसका इन द फेस ट्रीटमेंट है, स्ट्रांग फीमेल कैरेक्टर वाला टेम्पलेट है और एक मेल सपोर्टिंग कैरेक्टर है, बस! ऊपर से अब तापसी का कैरेक्टर दिल्ली से हो, मुम्बई से, पंजाब से या फिर गुजरात से… उसकी टोन, एक्सेंट, लहजा सब सेम ही दिखता है। इसपर तापसी को काम करने की ज़रूरत है।

    प्रियांशु पैन्यूली इम्प्रेसिव लग रहे हैं लेकिन उनका रोल बहुत सिंगल डाइमेंशनल है। अभिषेक बनर्जी को फ़िल्म में क्या हुआ है ये हमारी समझ से बाहर है। सुप्रिया पाठक हमेशा की तरह बेहतरीन हकन और वरुण वडोला को देखकर लगा कि उन्हें और काम मिलना चाहिए। बैकग्राउंड स्कोर थोड़ा अजीब है और गाने काम चलाऊ हैं मगर पूरी तरह गैरज़रूरी थे।

    कुल मिलाकर 'रश्मि रॉकेट' को तापसी की मेहनत और एक ज़रूरी मुद्दे के लिए देखा जा सकता है। लेकिन उसके लिए काफी सब्र चाहिए होगा।