बेताल रिव्यू: लालच, ज़ोम्बी और हॉरर का ये कॉम्बो रात में बिल्कुल मत देखना!
बेताल रिव्यू: लालच, ज़ोम्बी और हॉरर का मजेदार कॉम्बो
हॉरर की सबसे बड़ी खासियत पता है क्या है? ये आपके दिमाग के वो दरवाज़े खोल देता है। जहाँ आपको आजतक दीवार नज़र आती थी! इस सेन्स में हॉरर बहुत एंटरटेनिंग चीज़ है, लेकिन ये होता तभी है जब हॉरर में एक किस्म की लय होती है, मतलब हॉरर जो है, शुद्ध (पंकज त्रिपाठी वाला डायलॉग नहीं) विशुद्ध डर नहीं होना चाहिए। पोएटिक होना चाहिए। अब सवाल ये है कि क्या ‘बेताल’ का हॉरर इतना पोएटिक है?
बॉलीवुड में मुझे अभी तक ‘तुम्बाड़’ के अलावा और कहीं भी इतना खूबसूरत पोएटिक हॉरर नहीं मिला है। इंग्लिश लिटरेचर वालों को एक प्ले पढ़ाया जाता है ‘डॉक्टर फॉस्टस’। इस प्ले में एक लाइन थी जो लालच की ट्रेडमार्क डेफिनेशन है- The God thou serv'st is thine own appetite। (बेताल के एक एपिसोड में भी आपको ये लाइन सुनने को मिलेगी। यानी मेरी जो भूख है, जो लालच, जो डिजायर है न, अब वही मेरा भगवान है! ‘तुम्बाड़’ के टाइटल ट्रैक में राज शेखर ने लिखा था- उजली थी तो मेरी वासना, उसी से धुली मेरी आत्मा। ‘बेताल’ की कहानी, यहीं से शुरू होती है, इसी लालच से।
एक सिपाही जिसे ‘गुड सोल्जर’ बनने का इतना चस्का है कि वो अपने कमांडर के गलत ऑर्डर भी पूरी डेडिकेशन के साथ फॉलो करता है। एक कॉन्ट्रैक्टर जिसके लिए अपनी कामयाबी से बड़ा अपना परिवार भी नहीं है, खुद अपनी जान भी नहीं, वो शैतान तक से सौदा करने को तैयार है। और एक ब्रिटिश ऑफिसर जो अपने डिज़ायर को पूरा करने के चक्कर में ज़ोम्बी बन गया। अब इन लोगो के इंडिविजुअल लालच का टोटल प्रोडक्ट है ये ‘बेताल’ की कहानी, जिसे डायरेक्ट किया है पैट्रिक ग्राहम ने। पैट्रिक ने इससे पहले नेटफ्लिक्स का ही गूल भी डायरेक्ट किया था। गूल का मतलब भी आप समझेंगे तो ऐसा ही कुछ होता है, अनडेड मॉन्स्टर। जैसे कि ज़ोम्बी होते हैं।
यहां तक सारी सेटिंग सही थी, लेकिन स्क्रीन पर कोई भी स्टोरी उतनी ही ज़बरदस्त होती है, जितने उसके सबप्लॉट्स। बस यहीं पर ‘बेताल’ ढीली पड़ जाती है। सबप्लॉट्स को सही जैसे निपटा दिया गया है, सही से डेवलप नहीं होने दिया। दूसरी चीज़, ऑडियो में बहुत जगह ऐसा लग रहा था जैसे पैचिंग है और वो पता लग रहा था। ‘बेताल’ के ज़ोम्बी डरावने तो हैं, लेकिन उनकी LED आंखें ओवर द टॉप लग रही थीं। लेकिन फिर भी ‘बेताल’ हॉरर के मामले में बहुत अच्छा अटेम्प्ट है। ऐसी स्टोरीज़, जम्प स्केयर्स पर करती हैं, और वो होता है। ज़ोम्बी का मारा हुआ पहला बन्दा जब टनल से लड़खड़ाता हुआ, अपने हाथों में अपनी अंतड़ियाँ संभालता निकलता है, तभी लग जाता है कि भाई गंद तो इधर फाडू मचने वाला है! और ऐसा ही होता भी है।
एक और चीज़ बहुत अजीब है, स्क्रीन पर चलने वाले हिंगलिश सबटाइटल्स, मुझे आजतक समझ नहीं आया कि ये किसके लिए होते हैं। क्योंकि मुझे इंग्लिश पढ़नी हो होती तो इंग्लिश सबटाइटल खोल लेता, इंग्लिश नहीं समझ आ रही होती तो हिंदी सबटाइटल खोल लेता। लेकिन ये इंग्लिश सबटाइटल्स क्यों? रियर एग्जिट को पिछला द्वार लिख रहे हो, लेकिन रोमन स्क्रिप्ट में, वाह! खैर, हो सकता है इंडिया में टिके हुए उन ब्रिटिश ज़ोम्बीज़ को ऐसी वाली हिंदी पढ़नी हो, क्या कह सकते हैं! अच्छा, 3-4 जगह ज़बरदस्ती की क्रांति ठूंसने की कोशिश भी बहुत अजीब थी। जैसे, स्क्रीन पर जब आप दिखा रहे हो कि एक आदमी को बेटी नहीं बेटा चाहिए था, तो बिहेवियर में दिखाओ न उसके। जब लड़की खुद बोल देती है, मेरे बाप को बेटा चाहिए था, तब असर ख़त्म हो जाता है। मतलब स्क्रीन मिली है, मैसेज देना है तो तमीज से दो न, क्या निबंध पढने लगते हैं।
परफॉरमेंस की बात करें तो सुचित्रा पिल्लई और आहाना कुमरा, दोनों का काम बहुत ज़बरदस्त लगा। जितेन्द्र जोशी, अपने सेक्रेड गेम्स वाले काटेकर भाऊ को देखकर मज़ा आया। बाकी सब भी ठीक थे अपनी अपनी जगह, लेकिन ‘बेताल’ के लीड, विनीत कुमार सिंह इस बार कुछ ठन्डे से लगे। विनीत के रियेक्शंस में इस बार काफी दोहराव सा लग रहा था। लेकिन फिर भी वो अपनी जगह टिके रहते हैं।
कुल मिलाकर कहूँ तो ‘बेताल’ हॉरर के मामले में काफी अच्छा अटेम्प्ट है, विजुअल्स उतने भयानक हैं जितने एक मजेदार हॉरर शो के लिए चाहिए। स्टोरी में थोड़े से ढीले मोमेंट्स हैं, मगर फिर भी ये शो ओवरऑल हॉरर क्रिएट करने में सक्सेसफुल है।
मेरी तरफ से 'बेताल' को 3 स्टार्स!
बॉलीवुड में मुझे अभी तक ‘तुम्बाड़’ के अलावा