Maidaan Review: लजबाव है फुटबॉल कोच एस ए रहीम की कहानी, अजय देवगन ने जीता दिल
मैदान
फिल्म मैदान इंडिया के फुटबॉल कोच रहे सैयद अब्दुल रहीम की कहानी दर्शाती है। जिन्होंने साल 1962 में इंडिया को एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल दिलवाया था।
अजय देवगन भी एक शानदार स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म लेकर हाजिर हैं। उनकी फिल्म मैदान जो काफी समय से चर्चा में थी, वो आखिरकार लोगों के बीच दस्तक दे रही है। फिल्म में सैयद अब्दुल रहीम नाम के फुटबॉल कोच की कहानी बताई गई है। जिन्होंने कैंसर से लड़ते हुए इंडिया को 1962 में फुटबॉल एशियन चैंपियनशिप में गोल्ड दिलवाया था। उनके इस कारनामे का रिकॉर्ड आजतक कोई नहीं तोड़ पाया है। आइए जानते हैं कि कैसी इंडिया के इस हीरो पर बनी फिल्म मैदान।
फिल्म की कहानी
फिल्म पूरी तरह से सैयद अब्दुल रहीम (अजय देवगन) और उनकी फुटबॉल टीम के बारे में हैं। कहानी साल 1952 में शुरू होती है जब इंडियन फुटबॉल टीम ओलंपिक्स में बुरी तरह हार जाती है और इसका जिम्मा सैयद के सिर मढ़ दिया जाता है। तभी वो कहते हैं कि उन्हें उनके मुताबिक टीम चुनने दिया जाए। फेडरेशन की इजाजत मिलते ही वो पूरे इंडिया से खिलाड़ी चुनते हैं। जिनमें से गरीब और मध्यम वर्गीय लड़के होते हैं।
सैयद की कोचिंग में टीम 1956 के मेलबर्न ओलिंपिक्स में चौथा स्थान हासिल करती है लेकिन 1960 में वो रोम ओलिंपिक्स में शानदार प्रदर्शन के बावजूद क्वालिफाई नहीं कर पाते। आखिरकार सीनियर स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट रॉय चौधरी (गजराज राव) की पॉलिटिक्स के चलते सैयद अब्दुल रहीम को उनके कोच पद से हटा दिया जाता है।
इस बीच उन्हें लंग कैंसर का भी पता चलता है। इस बीच वो घर में ही बैठ जाते हैं और बेटे और पत्नी (प्रियामणि) संग समय बिताने लगते हैं। लेकिन तब उनकी बीवी कहती है कि वो घर पर बैठने के लिए नहीं बने। सैयद दोबारा फेडरेशन के पास जाते हैं और इस बार उनका चुनाव दोबारा से कोच पद के लिए हो जाता है और वो अपनी टीम के साथ 1962 में इंडिया को एंशियन गेम्स में गोल्ड दिलवाते हैं।
क्या है खास?
फिल्म में हर कलाकार की एक्टिंग काफी जबरदस्त है। अजय देवगन हमेशा की तरह आपका दिल जीत लेंगे। लेकिन यहां गजराज राव की अलग से तारीफ करनी होगी। उनका रोल आपको घिनौना लगेगा कि कैसे अपने देश को कोई नीचा दिखाने पर तुला रह सकता है। उन्होंने इस रोल को बहुत ही अच्छे से पकड़ा है। पीके बनर्जी (चैतन्य शर्मा), चुनी गोस्वामी (अमर्त्य रे), जरनैल सिंह (दविंदर गिल), तुलसीदास बलराम (सुशांत वेदांडे) और पीटर थंगराज (तेजस रविशंकर), इन खिलाड़ियों के रोल में एक्टर्स ने कमाल की परफोर्मेंस दी है।
अमित शर्मा जो कि इससे पहले 'बधाई हो' जैसे मूवी डायरेक्ट कर चुके हैं, उन्होंने इस फिल्म के हर पहलू पर काम किया है। फिल्म एक स्पोर्ट्स ड्रामा है और उन्होंने फिल्म के अंदर जितने मैच दिखाए हैं, सब कमाल के हैं। आखिरी मैच तो आपको ऐसा लगेगा जैसा आप खुद उन खिलाड़ियों के साथ खेल रहे हैं। फिल्म के सेकेंड हाफ जबरदस्त है। और आखिरी के 20 मिनट को आपकी पलकें तक नहीं झपकेंगी। फिल्म में फुटबॉल के साथ आपको ढेर सारा इमोशन्स भी देखने को मिलेगा और पॉलिटिक्स तो है ही।
कहां रह गई कमी?
फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा भूमिका बांधने में निकल जाता है। फिल्म 3 घंटे की है जिसे थोड़ा छोड़ा रखा जा सकता था। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर को भी और निखारा जा सकता था। फिल्म के गाने ऐसे नहीं हैं कि जो जुबान पर चढ़ जाएं। लेकिन हां फिल्म में उस वक्त ये ठीक ठाक लगेंगे।
कुल मिलाकर ऐसी फिल्मों को देखने के लिए थिएटर पर जरूर जाना चाहिए। जिससे पता चले कि हमारे देश में कैसे कैसे गौरवशाली हीरोज रहे हैं जो कि इतिहास पन्नों में खो गए हैं।