UT 69 रिव्यू: राज कुंद्रा नहीं लगे किसी एक्टर से कम, धीमी शुरुआत लेकिन बाद में पकड़ी रफ्तार
UT 69
UT 69 फिल्म राज कुंद्रा की असल लाइफ की कहानी को दर्शाती है जब वो आर्थर रोड जेल में अंडर ट्रायल बनकर रहे थे। वहां उन्होंने क्या कुछ झेला और देखा, वो सारा एक्सपीरियंस यहां शेयर किया है।
शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा ने भी बॉलीवुड में आखिर डेब्यू कर लिया है। उनकी फिल्म UT 69 सिनेमाघरों 3 नवंबर को रिलीज हो गई है। फिल्म की कहानी सीधी और साफ है। राज कुंद्रा पोर्नोग्राफी केस में फंसते हैं और उन्हें आरोपी के तौर पर करीब दो महीने जेल में रहना पड़ता है। फिल्म का मकसद साफ है कि इसके जरिए फिल्म में राज कुंद्रा के उन दिनों को दिखाया जा रहा है जब राज ने जेल में अपनी जिंदगी के सबसे बुरे दिन बिताए थे। तो बतौर एक्टर कैसे साबित हुए हैं राज और क्या फिल्म में है दम? आइए जानते हैं।
फिल्म की कहानी
इस फिल्म कहानी खुद राज कुंद्रा ने लिखी है और मुंबई की आर्थर रोड जेल में रहने के दौरान उनके साथ क्या हुआ ये फिल्म में दिखाया गया है। वो एक आरोपी के तौर पर अंडर ट्रायल बनकर जेल में जाते हैं। उन्हें शुरुआत में लगता है कि वो सिर्फ हफ्ते भर के अंदर निकल आएंगे लेकिन धीरे धीरे उनका समय जेल में हफ्ते दर हफ्ते बढ़ता ही जाता है। आखिरकार वो जेल में रहना सीख जाते हैं। जेल में कैदियों के बीच रहते हुए ना सिर्फ उनकी बल्कि पूरे जेल और बाकी कैदियों की हालत भी दिखाई जाती है। यहां राज कुंद्रा ना सिर्फ रोते हैं बल्कि इतनी बुरी जिंदगी में वो हंसना भी सीखते हैं।
फिल्म में क्या अच्छा?
फिल्म का सेकेंड हाफ पूरी फिल्म की जान है। क्योंकि वही वो वक्त है जब आप पूरे इमोशन्स में बंध जाएंगे और फिल्म खत्म होते होते तो आपको भी राज कुंद्रा और वहां मौजूद बाकी कैदियों के लिए थोड़ी तो हमदर्दी जरूर आ जाएगी। फिल्म में जेल के अंदर गणपति चतुर्थी मनाना। नमाज पढ़ना। ये सारे ऐसे सीन्स हैं जो थोड़े सुकून देते हैं।
बुरे हाल में भी कैसे छोटी-छोटी खुशियां ढूंढी जा सकती है, वो इस फिल्म से साफ दिखाया है। इस बदहाली में भी फिल्म में कॉमेडी दिखाकर मेकर्स ने दिल जीत लिया है। राज कुंद्रा भले ही एक्टर ना हो लेकिन उनकी फर्स्ट टाइम की कोशिश काबिले तारीफ है और बाकी साइड एक्टर्स भी पूरी मूवी में कमाल रहे हैं। शहनवाज अली ने फिल्म को टेक्नीकली कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया है।
कहां रह गई कमी?
फिल्म का फर्स्ट हाफ तो काफी बोरिंग नजर आता है। यहां तक कि जब फिल्म शुरू होती है तो आपको सीट पर बैठकर अपना फोन चलाने का मन करेगा। आप शायद ये भी कह दें कि ये मूवी क्यों ही बनाई गई है। लेकिन फिर धीरे धीरे फिल्म का ग्राफ ऊपर उठता है तो फिर जाकर थोड़ी गनीमत रहती है। फिल्म असल जिंदगी पर आधारित है लेकिन कमर्शियल सिनेमा में रचनात्मकता की हमेशा गुंजाइश रहती है और इसकी कमी यहां साफ दिखती है। सीधे और सरल एक तरह से मूवी को एक जेल के अंदर शुरू करके खत्म कर दिया गया है।
फिल्म बहुत ही फीके तरीके से शुरू होती है और इमोशन्स के साथ खत्म होती है। बस एक बार फिल्म को देखने के लिए देख सकते हैं। कोई वॉव फैक्टर नहीं है। फिल्म राज कुंद्रा की एक इमेज पेश करती है। उन्होंने ये दिखाया है कि ना सिर्फ उनके साथ बुरा हुआ है बल्कि जेल में बंद कई कैदियों के साथ भी बुरा हुआ है। कुछ अलग करने की कोशिश तो की गई है लेकिन फिल्म हिट कमर्शियल सिनेमा से टक्कर नहीं ले पाएगी।