‘अ थर्सडे’ रिव्यू: यामी गौतम की धाकड़ परफॉरमेंस पर टिकी ये कहानी थ्रिलर जैसी लगती तो है, मगर काफी सुस्ती फैलाने के बाद!
बॉलीवुड को इन दिनों एक्शन-कॉमेडी-रोमांस, हर जॉनर के बहाने मैसेज देने का चस्का चढ़ा है। लेकिन इनका मामला ज़रा उस प्रेमी जैसा हो गया है जो अपनी प्रेमिका को पत्थर में लपेटकर ख़त फेंकता है, लेकिन कुछ इस तरह कि उसी पत्थर से प्रेमिका का सर फोड़ बैठता है। हालांकि, इस हिसाब से ये तो मानना पड़ेगा न कि यामी गौतम की एक्टिंग थी तो पत्थर जैसी सॉलिड!
ऑफिशियली ‘अ थर्सडे’, नसीरुद्दीन शाह और अनुपम खेर वाली ‘अ वेडनसडे’ का सीक्वल तो नहीं है। लेकिन अगर फिल्म के कॉन्सेप्ट को समझा जाए तो मामला ‘इंस्पिरेशन’ वाला तो है ही। वही लाइन कि एक आम व्यक्ति एक दिन शहर को चौंकाने वाली संदिग्ध गतिविधि कर देता है, और सबकी घिग्घी बंध जाती है। सिस्टम हरकत में आ जाता है, लेकिन एंड में कुल जमा सार ये निकलता है कि सिस्टम के नट-बोल्ट कसने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था।
इस बार बारी है नारी की यानी यामी की (ये सुर मिलाने वाली हरकत जानबूझकर की गई है ताकि आपको पता लगे कि ज़बरदस्ती ओवर-फ़िल्मी होना कभी-कभी कितना झंडू लगता है!)। प्लेस्कूल सा कुछ चलाने वालीं यामी ने 16 बच्चों को किडनैप कर लिया है और शहर के आगे अपनी मांगें रख रही हैं। एक पॉइंट पर उन्हें प्रधानमंत्री से बैठकर बात करनी है। ये होता है या नहीं, ये मैं नहीं बताऊंगा, लेकिन आप इतने में ही समझ सकते हैं कि फिल्म किस लेवल पर ऑपरेट कर रही है।
स्टोरी में बहुत कुछ इतना अविश्वसनीय लगता है कि फिर जी ऊब जाता है। और फिल्म के शुरूआती 20 मिनट और अंत के 30 मिनट में जो है वही फिल्म है, बाकी बीच में तमाशा है। घटना से डील कर रहे दो ऑफिसर्स का आपस में खार खाना, उनका इतिहास, जो दो लाइन बोलने में ख़त्म हो जाता है। एक टीवी न्यूज़ एंकर जिसका पॉइंट क्या है समझ नहीं आता। सोशल मीडिया कल्चर को लपेटे में लेने की आधी-अधूरी कोशिश और बात-बात में मैसेज भरा लेक्चर।
एक्चुअली समस्या यही है कि बॉलीवुड अपने मेनस्ट्रीम में सोशल मुद्दे को हरे धनिए की तरह यूज़ करने लगा है, यानि कि डिश को गार्निश करने में। जबकि मेकर्स को ये समझ लेना चाहिए कि बिना एक्सपर्ट ओपिनियन के सेक्सुअल अब्यूज जैसे सीरियस मुद्दों को छूना उन्हें और खोखला कर देता है। और ये मान लेने में बुराई ही क्या है कि हम सेंसिटिव तरीके से ऐसे मुद्दों से डील करने में अभी शायद उतने मैच्योर नहीं हैं, या हमें और सीखने की ज़रूरत है। फिल्मों के फ़िल्मी ट्रीटमेंट से ज्यादा ज़रूरत उनके सेंसिटिव ट्रीटमेंट की है।
इस पैमाने पर डायरेक्टर बहजाद खम्बाटा और स्टोरी लिखने में उनके साथी एशले लोबो नाकाम हुए। हां, लिखे हुए मैटेरियल को स्क्रीन पर अपने हुनर से उतारने में यामी बहुत कामयाब हैं और उनकी ये परफॉरमेंस भी ज़ोरदार है। बल्कि फिल्म में उनका का काम ही थोडा देखने लायक चीज़ है। वरना तो राइटिंग इतनी हलकी है कि अतुल कुलकर्णी, नेहा धूपिया और डिम्पल कपाड़िया जैसे एक्टर्स को भी जस्टिफाई नहीं कर पाई।
हालांकि एक बार और बॉलीवुड के मैसेज दिखा के थ्रिलर में घुसा लेने वाले ट्रैप में फंसकर, एक रिस्क लेना चाहते हैं तो फिल्म आपकी। हॉटस्टार पर आराम से मिल भी जाएगी।