'अनेक' रिव्यू: आयुष्मान खुराना की फ़िल्म 'भारतीय' पहचान के मुद्दे को चेहरे के सामने रखकर पूछती है कड़े सवाल

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    अनेक

    जोशुआ एक अंडर कवर ऑफिसर है जिसे हर शर्त पर नॉर्थ-ईस्ट भारत के जलते राज्यों में बस शांति मेंटेन करवानी है। लेकिन अपने राजनीतिक आकाओं की थमाई इस ड्यूटी को पूरा करने के लिए वो जो कुछ करता है क्या वो 'भारतीय' पहचान के साथ न्याय है?

    Director :
    • अनुभव सिन्हा
    Cast :
    • आयुष्मान खुराना,
    • एंड्रिया केवीचुसा,
    • मिफम ओत्सल,
    • मनोज पाहवा,
    • कुमुद मिश्रा
    Genre :
    • थ्रिलर
    Language :
    • हिंदी
    'अनेक' रिव्यू: आयुष्मान खुराना की फ़िल्म 'भारतीय' पहचान के मुद्दे को चेहरे के सामने रखकर पूछती है कड़े सवाल
    Updated : May 27, 2022 09:48 AM IST

    इंडिया के नॉर्थ ईस्ट राज्यों में अलगाववादी गुटों की हिंसा और देश बाकी हिस्सों में इन राज्यों से आए लोगों की पहचान की लड़ाई, हमेशा से राजनीतिक डिस्कोर्स का बड़ा मुद्दा रही है। 'अनेक' के ट्रेलर में आयुष्मान खुराना सवाल पूछ रहे थे कि आखिर क्या तय करता है कि एक आदमी 'भारतीय' है? अपनी पिछली फिल्मों में सामाजिक मुद्दों को मेनस्ट्रीम बॉलीवुड स्टाइल में ला रहे डायरेक्टर अनुभव सिन्हा, इस महत्वपूर्ण मुद्दे को भी बहुत दमदार तरीके से उठाते हैं।

    'अनेक' की कहानी शुरू होती है नॉर्थ ईस्ट की एक बॉक्सर आइडो (एंड्रिया केवीचुसा) से, जिसे एक पब में पड़ी रेड में पुलिसवाले उसके दिखने के तरीके से जज करके 'मसाज वाली' और 'थाईलैंड से आई' कहकर हैरेसमेंट कर रहे हैं। नेशनल सेलेक्शन के लिए नाम आगे भेजने वाला कोच आइडो और उसके कोच के सामने 'चाइनीज़ खाने' और उनके रंगरूप को लेकर घटिया रेसिस्ट जोक करते हुए 'जस्ट जोक है' बोलकर हंसता रहता है। और आखिकार बिना सेलेक्ट हुए, इस बेहूदगी को सहकार आइडो वापिस लौट जाती है, लेकिन नेशनल लेवल की टॉप बॉक्सर को चुनौती देने के बाद।

    जहां से आइडो आती है वो हिंसा और अलगाववादी मूवमेंट के लिए अखबारों की सुर्खियों में आने वाला टिपिकल नॉर्थ-ईस्ट भारत है। 'अनेक' आपको ये बताने पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती कि ये 'सेवन सिस्टर्स' राज्यों में से कौन सा राज्य और इलाका है। यहां भारत सरकार का एक अंडरकवर ऑफिसर जोशुआ (आयुष्मान खुराना) एक कैफ़े चला रहा है और उसका काम है अलगाववादी गुटों को काबू में रख के भारत के साथ शांति समझौता करवाना। यानी अपने-अपने झंडे और पहचान का संघर्ष कर रहे इन लोगों को 'भारतीय' पहचान और तिरंगे झंडे के नीचे लाना। 

    इस इलाके के मुख्य अलगाववादी नेता टाइगर सांगा से भारत सरकार का सशर्त समझौता करवाने का ज़िम्मा है भारत सरकार के एक टॉप ब्यूरोक्रेट (मनोज पाहवा) और इस समझौते का टूल है पॉलिटिकल दांव-पेंच। इस मिक्सचर में एक टॉप पॉलिटिशियन भी है (कुमुद मिश्रा), जिसका किरदार कुछ कुछ भारत के प्रधानमंत्री या गृहमंत्री टाइप का है।

    कहानी का पेंच है एक नया हिंसक अलगाववादी संगठन 'जॉनसन' जो न भारत सरकार के काबू आ रहा है और न टाइगर सांगा के। जोशुआ, भारत सरकार और टाइगर सांगा को चाहिए 'जॉनसन' का नेता, इसके लिए कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। उधर आइडो का पिता वांगनाओ (मिफम ओत्सल) एक अलगाववादी आंदोलन चला रहा है, जबकि आइडो को भारत के लिए बॉक्सिंग करनी है। वांगनाओ एक सीन में कहता है- "मैं तेरे फाइट के लिए चियर नहीं कर सकता, तू मेरे फाइट के लिए चियर नहीं कर सकती। हम सब ऐसी ही ट्रेजेडी में जी रहे हैं!" 'अनेक' इसी ट्रेजेडी को जन्म देने वाली पॉलिटिक्स की कहानी है। फ़िल्म के सब-प्लॉट में एक मां और उसके टीनेज बेटे की भी कहानी है जिसे नॉर्थ ईस्ट का हिंसक अलगाववाद अपनी चपेट में लेता है।

    अनुभव सिन्हा ने 'नॉर्थ ईस्ट' के एक हिस्से पर फोकस न करके वहां के अलग-अलग राज्यों में चल रहे अलगाववादी आंदोलनों को एक छतरी के नीचे समेटने की कोशिश की है। आयुष्मान, मनोज और कुमुद के किरदार इस कहानी में टिपिकल उत्तर भारतीय सोच और नज़रिए को दिखाने वाले हैं। और इस पूरे चक्रव्यूह को अनुभव सिन्हा ने इस तरह रचा है जो लगभग हर दूसरे मिनट 'भारतीयता' की पहचान वाले तथाकथित पैमानों को, सवालों के एक घेरे में ला खड़ा करता है। 

    एक नज़र से देखने पर 'अनेक' लगभग हर 5 मिनट में आज की राजनीति पर भी सवाल करती है। हर दसवें मिनट भारत की तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति पर फ़िल्म कमेंट्री भी करती है। और सिन्हा की सबसे बड़ी कामयाबी ये है कि इनमें से कोई भी सवाल हल्का और गैर जरूरी नहीं लगता।

    'अनेक' के सिनेमाई तौर से अलग, इसकी एक अलग राजनीतिक समीक्षा भी हो सकती है जिसमें फ़िल्म का नैरेटिव कई जगहों पर नॉर्थ ईस्ट के संघर्षों में शामिल लोगों का पक्ष खुलकर रखने से बचता हुआ दिखता है। और ये मुख्यधारा की पॉलिटिक्स में ऐसे हिंसक आंदोलनों के प्रति जताया जाने वाले 'पॉपुलर' ओपिनियन की तरफ गिरती सी लगने लगती है, हालांकि पूरी तरह गिरने से बच जाती है। अपने मूल में, बेहद अलग और क्षेत्रीय किस्म की समस्याओं से उपजे इन आंदोलनों को 'नॉर्थ ईस्ट की पॉलिटिक्स' कहकर ट्रीट करना और क्षेत्रीय बोलियों से भरे इलाके में लोगों की आपसी बातचीत में हिंदी का ज़्यादा इस्तेमाल दिखाना भी 'अनेक' की एक दिक्कत हो सकती है।

    हालांकि, एक टोटल पैकेज के हिसाब से 'अनेक' एक बेहद गंभीर फ़िल्म है जो एक ट्रेडिशनल हिंदी सिनेमाई अंदाज़ में एंटरटेनिंग तो नहीं कही जा सकती। लेकिन मसालेदार फ़िल्मी कहानियों से भरे बड़े पर्दे पर गंभीर राजनीति का एक ज़रूरी महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है जिसका हमारे दौर के सिनेमा में दर्ज होना बेहद ज़रूरी था।

    परफॉर्मेंस की बात करें तो आयुष्मान खुराना हमेशा की तरह एक बार फिर अपने रोल के साथ न्याय करते हैं और उनके एक्शन्स में गंभीरता वाली बंदिशें हैं। मनोज पाहवा और कुमुद मिश्रा के साथ अपनी पिछली फिल्मों से ही सिन्हा जो करते आ रहे हैं, वो 'अनेक' में भी जारी है और इन दोनों ने अपने किरदारों को भरपूर वजन दिया है। मिफम ओत्सल की स्क्रीन प्रेजेंस ही कनफ्लिक्ट की एक हवा लिए आती है और अपने हर सीन में वो बेहतरीन लगते हैं। एंड्रिया की डेब्यू परफॉर्मेंस दमदार है और उनके इमोशन-एक्सप्रेशन बहुत ऑथेंटिक लगते हैं।

    कुल मिलाकर कहा जाए तो अनुभव सिन्हा की 'अनेक' उनकी सबसे पॉलिटिकल और एक ज़रूरी मुद्दे पर बनी दमदार फ़िल्म है जो थिएटर से निकलते हुए आपके मन में बहुत सारे सवाल छोड़ती है। आयुष्मान के फैन्स इसबार उन्हें देखकर खुश भी होंगे और सरप्राइज भी।