‘बॉब बिस्वास’ रिव्यू: अभिषेक बच्चन की मेहनत के बावजूद फीकी लगी बॉब बाबू की धार!

    2.5

    Director :
    • दिव्या अन्नपूर्णा घोष
    Cast :
      ‘बॉब बिस्वास’ रिव्यू: अभिषेक बच्चन की मेहनत के बावजूद फीकी लगी बॉब बाबू की धार!
      Updated : December 03, 2021 08:04 PM IST

      2012 में आई कहानी जिस-जिस ने भी देखी, वो ‘बॉब बिस्वास’ के कैरेक्टर का फैन न हुआ हो ये नामुमकिन है। लेकिन 2021 में ‘बॉब बिस्वास’ बने हैं अभिषेक बच्चन। अब जहां फैन्स को बॉब बिस्वास के नाम पर एक्टर शाश्वत चैटर्जी याद हैं, वहीं अच्छे एक्टर माने जाने वाले अभिषेक का करियर उस स्टेज पर है जहां उन्हें एक बहुत सॉलिड फिल्म की ज़रूरत है। मुद्दा ये है, क्या ‘बॉब बिस्वास’ से ये दोनों उम्मीदें पूरी हुईं?

      मुझे ‘कहानी’ में बॉब बिस्वास के 3 सीन याद हैं। यूट्यूब पर आपको ये तीनों आराम से मिल जाएंगे। 8 साल इतना लम्बा टाइम नहीं है कि आप कोई अच्छी फिल्म भूल जाएंगे और वो भी बॉब बिस्वास जैसा कैरेक्टर। अभिषेक बच्चन, बॉब बिस्वास के रोल में उतरने के लिए बहुत ज़ोर लगाते हैं। लेकिन फिल्म की राइटिंग में दिक्कत ये है कि अभिषेक, बॉब के वही 3 आइकॉनिक सीन्स रिपीट करते हुए लगते हैं।

      कहानी ये है कि बॉब बाबू 8 साल पहले एक एक्सीडेंट के बाद कॉमा में चले गए थे और अब उठे हैं। अब उन्हें रेडीमेड बिकी और दो बच्चों वाला परिवार रेडीमेड मिला है, मगर उन्हें कुछ याद नहीं है। लोग बताते हैं कि उनके पास पैसे भी हैं, मगर उन्हें याद नहीं है। ये भी याद नहीं है कि वो अच्छे आदमी हैं या बुरे। यहां फिल्म एक बहुत बढ़िया कनफ्लिक्ट तैयार कर देती है। मगर उनकी पुरानी रेपुटेशन जल्दी ही असर दिखाती है और उन्हें फिर से काम मिलना शुरू हो जाता है। बॉब बाबू के पास अगर पुराना काम लौटा है तो समस्याएं भी लौटेंगी। अब मुद्दा ये है कि बॉब बाबू अपना कनफ्लिक्ट सॉल्व करके किस तरफ जाते हैं? और यहीं पर फिल्म हलकी लगती है।

      ‘बॉब बिस्वास’ में बॉब बाबू उतने ‘कोल्ड ब्लडेड’ नहीं लगे। अभिषेक की इसमें कोई गलती नहीं है, लेकिन समस्या ये है कि अभिषेक भीड़ में एक अनजाना चेहरा लग ही नहीं सकते। मतलब, जो चीज़ नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के फेवर में रहती है, और शाश्वत चैटर्जी के ‘बॉब बिस्वास’ की यूएसपी थी; वो अभिषेक के पास नहीं है। लेकिन फिर भी अभिषेक का एफर्ट बढ़िया है। लेकिन मुझे लगता है कि फिल्म की कहानी इस बात पर फोकस्ड रहती कि बॉब बाबू जैसे हैं, वैसे बने कैसे, तो और मज़ा आता। पुराना सब भूल जाने वाला एंगल लेकर, कहानी डायरेक्टर सुजोय घोष ने एक तरह से पुराने बॉब के साथ नाइंसाफी की है। क्लियर कर दूं, उनका नाम इस बार बतौर राइटर ही है। फिल्म डायरेक्ट की है उनकी बेटी दिव्या ने। और स्टोरी की पेसिंग में उनकी कम अनुभव दिखता है।

      फर्स्ट हाफ़ तक फिल्म अटेंशन पकड़े हुए थी लेकिन सेकंड हाफ़ में बॉब का कैरेक्टर आर्क अपने शुरूआती कनफ्लिक्ट से बहुत अलग चला गया। राज वसंत ने फिल्म के डायलॉग बहुत मज़ेदार लिखे हैं। फिल्म में दो और कैरेक्टर्स हैं जो बहुत सॉलिड हैं और इसके पीछे उनकी परफॉरमेंस है। काली दा के रोल में परन बंदोपाध्याय को देखना बहुत मज़ेदार है, स्क्रीन पर उनका एक-एक सेकंड और एक-एक शब्द बहुत सॉलिड है। पबित्र राभा का ‘हिटमैन’ का कैरेक्टर भी बहुत दिलचस्प है। चित्रांगदा सिंह को इतने वक़्त बाद स्क्रीन पर देखकर बहुत अच्छा लगा, हालांकि उनका रोल बहुत बड़ा नहीं है। फिल्म का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर भी अच्छा है। गैरिक सरकार की सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है और कलर्स से खूब खेला गया है।

      कुल मिलाकर ‘बॉब बिस्वास’ एक ऐसा स्पिन-ऑफ है, जो चाहिए तो सबको था। ठीक भी लगेगा, लेकिन अभिषेक बच्चन की अच्छी मेहनत के बावजूद प्रिजिनल बॉब- शाश्वत चैटर्जी, याद आते रहते हैं।