‘जनहित में जारी' रिव्यू: नुशरत भरूचा की फ़िल्म समस्या का समाधान खोजते-खोजते नई समस्या खड़ी कर देती है

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    जनहित में जारी

    मनु को नौकरी की सख्त ज़रूरत है नौकरी और उसकी तलाश ख़त्म होती है कंडोम बनाने वाली एक कम्पनी पर। लेकिन क्या उसका घर, ससुराल, समाज इस 'तौबा तौबा' वाले काम में उसे स्वीकार कर पाएगा?

    Director :
    • जय बसंतू सिंह
    Cast :
    • नुशरत भरूचा,
    • पारितोष त्रिपाठी,
    • अनूद सिंह ढाका,
    • विजय राज,
    • बिजेंद्र काला
    Genre :
    • सोशल कॉमेडी
    Language :
    • हिंदी
    ‘जनहित में जारी' रिव्यू: नुशरत भरूचा की फ़िल्म समस्या का समाधान खोजते-खोजते नई समस्या खड़ी कर देती है
    Updated : June 10, 2022 12:01 AM IST

    कंडोम के ऐड्स हमेशा एक ही पॉइंट पर फोकस करते हैं- प्लेज़र। नुशरत भरूचा की फ़िल्म इस बात पर फोकस वापिस लाने की मांग करती है कि पुरुषों के इस्तेमाल के लिए बना ये कॉन्ट्रासेप्टिव यानी गर्भ-निरोधक, महिलाओं को कितनी समस्याओं से बचा सकता है। लेकिन क्या इस बेहद ज़रूरी मैसेज को 'जनहित में जारी' करते हुए ये फ़िल्म कामयाब होती है?

    कंडोम के इस्तेमाल, इसकी मार्केटिंग के गलत तरीकों, इसकी समझ, इसे खरीदने से जुड़े संकोच और इसे इस्तेमाल करने में पुरुषों के सुस्त रवैये पर बात करती फ़िल्म, अपने पूरे रनटाइम में सिर्फ एक बार'सेक्स' शब्द इस्तेमाल करती है। फ़िल्म के डायरेक्टर जय बसंतू सिंह और राइटर राज शांडिल्य का फोकस इस बात पर है कि ज़रूरी मैसेज पर बनी इस फ़िल्म को लोग परिवार के साथ देख सकें। शायद इसीलिए'सेक्स' शब्द से बहुत बच के सारी बातें की गई हैं। हालांकि दिक्कत यही है कि कंडोम हो या सेक्स, बात तो टैबू तोड़ने की ही है न… जो इस तरह तो नहीं टूट सकता।

    मनोकामना उर्फ मनु(नुशरत) अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हैं और घरवालों से आ रहे शादी के प्रेशर से बचने के लिए जॉब की जोरदार तलाश में हैं। और इसी चक्कर में वो कंडोम की मार्केटिंग से जुड़ी नौकरी तक जा पहुंचती हैं। शुरुआत में उनकी सोच भी वही आम समाज वाली रहती है और वो कंडोम मार्केटिंग की बात पर काफी हाय-तौबा करती हैं। लेकिन आखिरकार अपने काम में रम जाती हैं और 'लिटल अम्ब्रेला' कंपनी को तेजी से आगे बढ़ाने लगती हैं।

    हालांकि, छोटे शहर-कस्बे में शादी वो प्रेत है जिससे आप चौराहे पर बच निकलें तो खिड़की से आ जाता है! तो मनु की शादी हो जाती है रंजन (अनुद सिंह ढाका) से। मगर उनके नए परिवार को, फिलहाल उनकी नौकरी को लेकर अंधेरे में रखा जाता है। और जब ये अंधेरा छंटता है तो उनके ससुर (विजय राज़) समाज में बदनामी और ऐसे 'गंदे काम' की आंच में सूरज से भी तेज तपने लगते हैं। शुरू में मनु सरेंडर कर देती है और मार्केटिंग के हुनर को प्लास्टिक के डब्बे में खर्च करने लगती है। लेकिन एक कम उम्र लड़की के साथ घटी दुखद घटना से दो-चार होने के बाद उन्हें समझ आता है कि उनका पिछला काम असल में एक मिशन है।

    मनु घर में बागी हो जाती है और फिर से'लिटल अम्ब्रेला' पहुंच जाती है। अब उसके घर-परिवार और समाज में जो तांडव होता है, वही फ़िल्म को क्लाइमेक्स तक खींच कर ले जाता है। मगर फर्स्ट हाफ में चटपटे डायलॉग और करारे पंचेज़ से भरी ये फ़िल्म, सेकंड हाफ में खिंचती चली जाती है। मनु का किरदार टिपिकल बॉलीवुड बीमारी- करने से ज़्यादा कहकर बताना, से पीड़ित हो जाता है। ऊपर से, मनु के पति और ससुर के किरदारों की हल्की राइटिंग भी मामला फीका करने लगती है।

    परफॉरमेंस की बात करें तो मनु के रोल में नुशरत ने अपनी तरफ से एक बार फिर अच्छी परफॉरमेंस देने की कोशिश की है। हालांकि, पहले'छलांग' और अब'जनहित में जारी' के स्मॉल-टाउन गर्ल वाले किरदारों में उनके बोलने का लहजा थोड़ा खटकता है। सपोर्टिंग कैरेक्टर्स में सबसे बेहतरीन काम पारितोष त्रिपाठी का है, जो मनु के दोस्त देवी के रोल में हैं। परितोष का अंदाज़, कॉमिक टाइमिंग और एक्सप्रेशन की बारीकी पूरी फिल्म में माहौल को एंटरटेनिंग बनाए रखती है। बेहद पॉपुलर सीरीज 'ताजमहल 1989' में नज़र आए अनुद, यहां पर भी अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश करते हैं मगर कैरेक्टर लिखने में हुआ हल्कापन उनके काम को फीका करता है। ऐसा ही कुछ विजय राज़ के साथ भी होता है, मगर उनकी स्क्रीन प्रेजेंस इसकी भरपाई कर देता है। बिजेंद्र काला और टीनू आनंद अपने छोटे किरदारों में भरपूर वजनदार लगते हैं।

    'जनहित में जारी' के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि ये महिलाओं पर इस बात का जोर देने की कोशिश करती है कि वे अपने पतियों/पार्टनर्स पर कंडोम इस्तेमाल करने के लिए दबाव बनाएं। इस समाज में रह रहे आप और हम ये अच्छे से जानते हैं कि ये अप्रोच किस कदर गलत है, और इससे आजतक तो कोई खास भला हुआ नहीं है। इसके अलावा फिल्म एक लेक्चर भरे सीक्वेंस में अबॉर्शन के साथ और स्टिग्मा जोड़ देती है। हालांकि ये पूरा लेक्चर खत्म होने की तरफ राइटर्स को याद आता है कि असल में उन्हें 'इलीगल एबॉर्शन' की दिक्कतें बतानी थी।

    बैकग्राउंड स्कोर, म्यूजिक और सिनेमेटोग्राफी वगैरह में फ़िल्म औसत है। एडिटिंग पर थोड़ी और मेहनत की जाती तो फ़िल्म थोड़ी ज़्यादा टाइट हो सकती थी।

    कुल मिलाकर कहा जाए तो'जनहित में जारी' एक ज़रूरी विषय पर बनी फिल्म है जो अपने मैसेज को और इफेक्टिव तरीके से रख सकती थी। लेकिन फिर भी ऐसा नहीं है कि इसे अवॉयड किया जाना चाहिए। जो मैसेज है, उसे एंटरटेनमेंट के साथ देने में फ़िल्म काफी मेहनत करती है और एक्टिंग परफॉरमेंस के कारण टिकी रहती है।