‘रनवे 34’ रिव्यू: अजय देवगन और अमिताभ बच्चन की ये फ्लाइट तो है मज़ेदार, मगर इसकी लैंडिंग में थोड़ी दिक्कतें भी हैं साथ

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    रनवे 34

    कैप्टन विक्रांत खन्ना और उनकी को-पायलट तान्या एल्बकर्की का दुबई से आ रहा प्लेन एक ऐसी सिचुएशन में फंस गया है कि अब एमरजेंसी लैंडिंग के अलावा कोई चारा नहीं है। लैंडिंग होने के बाद मुद्दा उठा है कि ये नौबत ही पायलट की गलती की वजह से आई, और जांच करने आते हैं नारायण वेदांत। सवाल ये है कि क्या विक्रांत न

    Director :
    • अजय देवगन
    Cast :
    • अजय देवगन,
    • अमिताभ बच्चन,
    • रकुल प्रीत सिंह,
    • अंगिरा धर,
    • बोमन ईरानी
    Genre :
    • एविएशन-ड्रामा
    Language :
    • हिंदी
    ‘रनवे 34’ रिव्यू: अजय देवगन और अमिताभ बच्चन की ये फ्लाइट तो है मज़ेदार, मगर इसकी लैंडिंग में थोड़ी दिक्कतें भी हैं साथ
    Updated : April 29, 2022 01:07 AM IST

    हिंदी सिनेमा में अच्छे एविएशन ड्रामा के नाम पर एकदम से कोई एक ढंग का नाम नहीं याद आता। और ‘रनवे 34’ की सबसे बड़ी खासियत यही है कि इस स्पेस में ये फिल्म एक अच्छा अटेम्प्ट कही जा सकती है। अजय देवगन सिर्फ स्टोरी में ही नहीं, रियल में भी इस फिल्म के पायलट हैं क्योंकि डायरेक्शन और प्रोडक्शन उनका खुद का है। साथ में अमिताभ बच्चन और रकुल प्रीत सिंह जैसे सॉलिड एक्टर्स भी हैं। यानी एक अच्छी फ्लाइट का सामान तो भरपूर है। मगर क्या इस फ्लाइट की लैंडिंग भी स्मूथ हुई?

    विक्रांत खन्ना (अजय देवगन) एक टशन वाले पायलट हैं और फ्लाइट हो या फ्लाइंग के नियम, सबकुछ उंगलियों पर नचाना जानते हैं। एक एक्स्ट्रा बोनस ये है कि उनके पास ‘फोटोग्राफिक’ मेमोरी है। मतलब कुछ नहीं भूलते। पहले 15-20 मिनट में फिल्म ये सब क्लियर कर देती है। इसके बाद आती हैं उनकी को-पायलट तान्या एल्बकर्की (रकुल प्रीत सिंह)। 

    दोनों को दुबई से चली फ्लाइट सही-सलामत कोच्चि पहुंचानी है, यानी दोनों का वही रूटीन आम दिन। मगर कोच्चि पहुंचते ही मामला बिगड़ जाता है क्योंकि मौसम बहुत ख़राब है और फ्लाइट नहीं लैंड कराई जा सकती। इसके बाद फ्लाइट को डाइवर्ट कर दिया जाता है और लिमिटेड फ्यूल होने की वजह से अंत में एमरजेंसी लैंडिंग के अलावा कोई चारा नहीं बचता। ये एमरजेंसी लैंडिंग कितनी रिस्की है ये आप फिल्म देखकर समझ जाएंगे। 

    फर्स्ट हाफ में फिल्म में एक फ्लाइट और कॉकपिट के अन्दर के सीन्स जितने बेहतरीन लग रहे हैं उसके लिए अजय देवगन की सबसे पहली तारीफ़ बतौर डायरेक्टर की जानी चाहिए। लैंडिंग हो जाने के बाद उठता है बड़ा सवाल- क्या कैप्टन विक्रांत ने सच में अपने पैसेंजर्स की 150 यात्रियों की जान बचाई है या फिर उनकी जान को रिस्क पर डालने वाला ही खुद वही है? इस सवाल का जवाब खोजने आए हैं नारायण वेदांत (अमिताभ बच्चन)। जो फिल्म इंटरवल तक एक एविएशन-ड्रामा थी वो अब एक कोर्टरूम ड्रामा बन जाती है। और ऐसा होते ही अजय देवगन की इस फ्लाइट में आपको हिचकोले महसूस होने लगते हैं। 

    इसका पहला कारण है कैरेक्टर्स की राइटिंग। मुद्दा चल ही रहा है तो यहां एक छोटा सा कमेन्ट हो सकता है कि असल में साउथ सिनेमा के मुकाबले हिंदी की फ़िल्में इसी डिपार्टमेंट में कमज़ोर रह जाती हैं। सपोर्टिंग किरदारों की बिना गहराई वाली राइटिंग! जैसे- रकुल के कैरेक्टर का सरनेम एल्बकर्की है और इसे लेकर फिल्म में 2-3 बार फिल्म एक हल्का जोक करने की भी कोशिश करती है। सरनेम पर जोक करने की बजाय इसे एक छोटी सी बैकस्टोरी देकर इंटरेस्टिंग बनाया जा सकता था। बच्चन साहब का किरदार, इंग्लिश को खाने-चबाने की भाषा मानने वाली एविएशन इंडस्ट्री से लंबा हिसाब-किताब रखने के बावजूद हिंदी शब्दकोष से चुन कर निकाले गए शब्दों में बातचीत करता है। 

    राइटर शायद शुद्ध हिंदी बोलने को जोक समझते होंगे लेकिन अगर अपने काम को सीरियसली लेते तो यहां भी कुछ मज़ेदार ऐड हो सकता था। इसी तरह अजय देवगन फिल्म के पहले सीक्वेंस से ही अपनी मेमोरी को ‘फोटोग्राफ़िक’ बताते हुए टशन मारे जा रहे हैं। राइटर्स को शायद ‘फोटोग्राफ़िक मेमोरी’ को भी हिंदी दर्शकों के लिए कोई नयी चीज़ समझते होंगे, लेकिन ये भी कई सौ फिल्मों में घिसा जा चुका है। जबकि असल में फिल्म में खुद कई मौके हैं जब अजय नहीं भी बोलते तो जनता उनकी याददाश्त की फैन हो जाती। 

    दूसरी बड़ी दिक्कत शुरू होती है फिल्म की एडिटिंग से- बेहतरीन VFX, जानदार सिनेमेटोग्राफी और शानदार कैमरा-वर्क से फिल्म के फर्स्ट हाफ में जो शानदार विजुअल हैं, उन्हें स्टोरी टेलिंग के हिसाब से थोड़ी और डायनामिक एडिटिंग एक अलग ही लेवल पर ले जाती। और जब सेकंड हाफ में फिल्म कोर्टरूम में पहुंचती है तो अजय-अमिताभ के फेस ऑफ के बीच एडिटिंग की कलाकारी मामले को और जानदार बना देती। 

    ऐसा नहीं है कि अभी ये कोर्टरूम सीन्स एंगेजिंग नहीं हैं, लेकिन अभी सारा लोड सिर्फ डायलॉगबाज़ी पर आ जाता है। एक कमी जो बहुत बड़ी लगी- रकुल प्रीत का कैरेक्टर पायलट का है, लेकिन फिल्म में उसे इतना हल्का लिखा गया है कि वो अविश्वसनीय हो जाता है। वो अपने सीनियर के किसी फैसले पर कोई तीखा ऑब्जेक्शन नहीं करती और ज़्यादातर इस किरदार को बस अजय की शान बढ़ाने के उद्देश्य से गढ़ा गया लगता है। भले ही वो अजय की जूनियर है लेकिन है तो खुद भी एक ठीकठाक अनुभवी पायलट, ऐसे में क्राइसिस के हाल में उसका सब छोड़कर रोने-गाने लगना एक टिपिकल बॉलीवुड बीमारी है जो राइटिंग में घुसी हुई है। 

    परफॉरमेंस की बात करें तो तीनों ही एक्टर्स की एक्टिंग के बारे में अब ज्यादा कुछ नया कहने को बचा नहीं है। जहां अजय हमेशा की तरह इस बार भी अपने काम से ऑडियंस को फंसा ले जाएंगे, वहीं बच्चन साहब तो हैं ही स्क्रीन के बाप। रकुल ने अपनी ब्रीफ और रोल के स्कोप के हिसाब से पूरा एफर्ट किया है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है और कहानी के माहौल को बनाए रखता है। गानों में जसलीन रॉयल का ‘द फॉल’ कानों को सुकून देता है औरु फिल्म में बहुत अच्छे से यूज़ किया गया है। बाक़ी दोनों गाने औसत हैं।

    कुल मिलाकर अजय देवगन, अमिताभ बच्चन और रकुल प्रीत स्टारर ‘रनवे 34’ अपनी खामियों के बावजूद देखने लायक तो ज़रूर है। और एवरेज बॉलीवुड दर्शक के हिसाब से एक अच्छी फिल्म बनी है। थोड़ी ज्यादा मेहनत से फंसने वाली जनता को भी फिल्म का फर्स्ट हाफ तो ज़रूर भाएगा, लेकिन सेकंड हाफ में जगह-जगह ध्यान टूटेगा।